मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

मुझे जीने का हक है!

न जाने क्यों
बगावत कर
तन कर खड़ी हो गई
वर्जनाओं और प्रतिबंधों की
जंजीरों को तोड़कर
नए स्वरूप में
जंग का ऐलान कर.
माँ लगी समझाने
वे बड़े हैं,
पिता हैं,
भाई हैं ,
उन्हें हक है
कि तुझे अपने अनुसार
जीवन जीने देने का।
नहीं, नहीं, नहीं..........
बचपन से प्रतिबंधों की
जंजीरों में जकड़ी
औ' अपनी बेबसी पर
रोते हुए देखा है तुम्हें
घुट-घुटकर जहर
पीते हुए देखा है तुम्हें
तुम्हारी छाया में
पिसती मैं भी रही
लाल-लाल आँखों का डर
हर पल सहमाये रहा
पर अब क्यों?
नहीं उनका रिश्ता
मैं नहीं ओढ़ सकती
जीवन भर के लिए
अपने को
दूसरों की मर्जी पर
नहीं छोड़ सकती।
जिन्दगी मेरी है,
उसे जीने का हक है मुझे
चाहे झूठी मान्यताओं
औ' प्रथाओं से लडूं
जीवन अपने लिए
जीना है तो क्यों न जिऊँ
पिता के साए से डरकर
तेरी गोद में
छुपी रही
अब नए जीवन में
उनका साया नहीं,
उन जैसे किसी भी पुरूष की
छाया भी नहीं
मैं पति से डरकर
जीना नहीं चाहती
अब परमेश्वर की मिथ्या
परिकल्पना को
तोड़कर
एक अच्छे साथी की
तलाश ख़ुद ही करूंगी
चाहे जब भी मिले
मंजिल
उसके मिलने तक
अपनी लडाई
ख़ुद ही लडूंगी
मुझे जीने का हक है
मुझे जीने का हक है
और मैं उसको
अपने लिए ही जिऊंगी.

6 टिप्‍पणियां:

  1. अंतर्वेदना का मार्मिक चित्रण - उत्कृष्ट रचना के लिए हार्दिक बधाई

    जवाब देंहटाएं
  2. marmik he, kintu mujhe lagtaa he ab zamana badlne lagaa he../ kam se kam meri nazaro tak..kuchh badlaav he jnhaa beti ko hi saare adhikaar diye jaa rahe he.yaa milte he..., thode hi sahi kintu is badlaav par bhi rachnaye honi chahiye../

    जवाब देंहटाएं
  3. बहुत ही उत्कृष्ट रचना है...आज की नारी की जद्दोजहद बयाँ करती हुई...और उसके दृढ निश्चय को परिभाषित करती हुई

    जवाब देंहटाएं
  4. मुझे जीने का हक है
    मुझे जीने का हक है
    और मैं उसको
    अपने लिए ही जिऊंगी.
    एक लडकी के मन की वेदना को बहुत अच्छी तरह व्यक्त किया है । सही सन्देश देती अच्छी रचना के लिये बधाई

    जवाब देंहटाएं