वह सर पर कपड़ा रखे
ईंटें ढो रही थी,
पास ही कहीं
दुधमुहीं बच्ची सो रही थी।
आवाजें कारीगरों की
जल्दी करो
जल्दी करो
बराबर आ रही थीं।
सहसा सोती बच्ची
रोने लगी।
शायद भूखी होगी।
आँचल से दूध
टप-टप कर बहने लगा।
पर
बेटी को उठा नहीं सकती
पेट उसका भर नहीं सकती
पैसे जो कट जायेंगे।
बड़ी मिन्नतों के बाद
बच्ची को लाने की अनुमति मिली है।
जो छुआ तो
मालिकों के मुंह ही
खुल जायेंगे।
ये खून-पसीने के
हिसाब से नहीं
शरीर से गिरते
खारे पानी के पैसे देते हैं।
उसका तो
ये खारा पानी
और भी अधिक बहता है।
उसके साथ रोती हुई बच्ची के आंसूं
और माँ के आंसूं
दोनों की कीमत
कभी नहीं गिनी जाती।
बस बहते हुए पसीने की
धारों के बदले
दो रोटी भर की
कीमत मिलती है.
जहाँ साफ़ पानी की नदियाँ बह कर नालों में मिल जाती हैं , जहाँ गंगा की भी कद्र लोग सिर्फ इसलिए करते हैं की वो उनके पापों को धोती है वहां किसी अबला के आंसू या पसीने की कद्र की आशा करना व्यर्थ ही है ...
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी रचना।
जवाब देंहटाएंbahut hi gahan abhivyakti...........sach kaha hai aapne is dard ko har koi kahan samajhta hai.
जवाब देंहटाएंओह्ह!! रुला दिया आपकी इस कविता ने.बहुत ही मर्मस्पर्शी रचना..कटु सत्य बयाँ करती हुई
जवाब देंहटाएंवाह वाह "खारे पानी की कीमत!" के माध्यम से क्या कह दिया आपने. आपकी भावनाओं और सोच को नमन.
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