सोमवार, 16 फ़रवरी 2009

सफर

जीवन का यह सफर
बस
एक परिक्रमा है,
बार-बार शुरू होती है,
सुबह से शाम तक
वही गलियाँ औ' रास्ते ,
छाँव भरे पल कब गुजरे
छाँव में पता नहीं चले,
जब फिर धूप मिली
तो कहीं छाँव नहीं थी।
थकते, लड़खडाते कदम
रुक तो नहीं सकते
सफर अभी बाकी है,
चलना औ' चलते जाना है।
किसी छाँव की आस में
बरसों धूप में गुजरे
मुश्किल से
पत्थरों पर जिए,
घावों पर
पैबंद सिये,
विवशता में
खून के घूँट पिए,
बस यही
घाव अपने दिल में लिए,
चलते ही रहे हम।
पर
हर एक परिक्रमा
वही लाकर खड़ा कर देती है
जहाँ से सफर शुरू किया था।
फिर नया सफर
नए आशियाँ की तलाश में
तिनके-तिनके समेटे किसी पेड़ पर
नया आशियाँ बनाना है
सफर अभी बाकी है
औ' फिर चलते ही जाना है.
मंजिल का पता नहीं।
चलना ही नियति है
चलते ही जाना है.

6 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सही व सुन्दर ! जीवन सच में ऐसा ही है। जहाँ से शुरु हुए वहीं को लौटकर आते हुए सा और फिर से शुरु करने सा।
    घुघूती बासूती

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  2. सत्‍य का आईना दिखाती एक बेहतरीन रचना।

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  3. सिर्फ चलते ही जाना है....बहुत सुंदर।

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  4. pahli baar aapke blog par aanaa hua..
    achchi rachna padhhne ko mili..
    mujhe us geet ki yaad aa gai..
    "jivan chalne kaa naam chalte raho subah shaam....."

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