मंगलवार, 29 जून 2010

मेरा मीत कहाँ रे !



उदास मन औ'
गीली आँखें
क्यों शून्य निहार रही हैं?
मन  ही मन
जीवन के कोरे कागज पर
किस गम का 
ये अक्श उतार रहीं हैं? 
खोज रही हैं
मन का मीत
न  जाने कहाँ मिलेगा?
खोल पोटली
पीड़ा व्यथा की
थमा  सके
 अम्बार ग़मों  का
खुद हल्का हो जाए
फिर भरें उड़ानें 
नीलगगन में
चहक चहक कर गायें .
मिला  जो मितवा
इन राहों में 
दिए उसे वो बोझ सारे 
उसने सब ले लिए ख़ुशी से 
सौगात समझ कर 
अपने साथी के .
चला जो साथी 
उठा धरोहर
खुशियाँ बदले में देकर
झूम उठा मन
पंख फैला कर
इस कोने से उस कोने तक 
अंतहीन इस  अन्तरिक्ष में
गुनगुनाते  हुए ये
तुम्ही तो जो
दे जाते हो
नए गीतों  की धरोहर
फिर न मन ये कुछ भी जाने.
फिर आना तुम मीत मेरे

मेरे दुःख बंटवाने.

9 टिप्‍पणियां:

  1. रेखा जी जो मीत एक बार मिल जाए उसे जाने के लिए मत कहिएगा। मीत दुबारा कब लौटते हैं। शुभकामनाएं।

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  2. मन का मीत ही हर क्षण साथ देता है....सुन्दर अभिव्यक्ति

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  3. अंतहीन इस अन्तरिक्ष में
    गुनगुनाते हुए ये
    तुम्ही तो जो
    दे जाते हो
    नए गीतों की धरोहर
    bahut sundar

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  4. खोल पोटली
    पीड़ा व्यथा की
    थमा सके
    अम्बार ग़मों का
    खुद हल्का हो जाए
    फिर भरें उड़ानें
    नीलगगन में
    बहुत ही सुन्दर पंक्तियाँ...सच मन का मीत ही दुख-सुख का साथी होता है...

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  5. ek man ka meet hi to hai jo har kshan saath deta hai ..bahut sundar kavita.

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  6. खोल पोटली
    पीड़ा व्यथा की
    थमा सके
    अम्बार ग़मों का
    खुद हल्का हो जाए
    फिर भरें उड़ानें
    नीलगगन में
    बहुत ही भावमय पँक्तियाँ हैं बहुत अच्छी लगी कविता। बधाई

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  7. मन के मीत को पुकारती ... अपने जीवन की रिक्तता को खोजती अर्थ पूर्ण रचना ...

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  8. हमेशा की तरह बहुत सुंदर रचना... बहुत खूबसूरत एहसास के साथ आपने लिखा है....

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