सोमवार, 10 अक्टूबर 2022

गमज़दा घर !

 

गमज़दा घर !

उस मकान से
कभी आतीं नहीं 
ऐसी आवाजें
जिनमें खुशियों की हो खनखनाहट।
खामोश दर,
खामोश दीवारें, 
बंद बंद खिड़कियाँ,
ओस से तर हुई छतें
शायद रोई हैं रात भर ।
कोई  इंसान भी नहीं 
हँसता यहाँ,
मुस्कानें रख दी हैं गिरवी। 
उनके यहाँ 
खुशियाँ ने भी
न आने की कसम खाई है।
शायद इसीलिए
हर तरफ मायूसी छाई है।
 
--  रेखा श्रीवास्तव

रविवार, 9 अक्टूबर 2022

एलेक्सा!

एलेक्सा!

हाँ वह एलेक्सा है,
आज की नहीं
बल्कि वह तो वर्षों से है।
वह एलेक्सा पैदा नहीं हुई थी,
माँ की मुनिया,
बापू की दुलारी,
विदा हुई जब इस घर से,
तब पैदा हुई एलेक्सा।
और फिर वही बनी रही, 
उसको किसी मशीन में नहीं 
बल्कि मशीन ही बना दिया
और 
वह एक जगह नहीं
जगह जगह दौड़ती रहती है।
एक नहीं कई थे आदेश देने वाले,
वह रोबोट नहीं थी,
वह आज की तरह न  थी
तब उसका नाम कुछ भी होता था।
उसे लाया जाता साधिकार,
फिर वह एलेक्सा बना दी गई।
तारीफ देखिए सदियों बाद जब
नयी एलेक्सा आई तो
वह भी स्त्रीलिंग है
और उसका निर्माता पुरुष।
आज की एलेक्सा तो बगावत भी कर सकती है,
कल की तो बोलना भी नहीं जानती थी, 
चुपचाप आदेश पूरा करती रहती।
आज भी हर दूसरे घर में 
दो दो एलेक्सा मिल जायेंगी
ये उनकी नियति है,
चाहे हाड़-माँस की हो या मशीन
उसे सिर्फ आदेश मानना है
बगैर नानुकुर किए 
ये एलेक्सा हर युग में रही है 
और रहेगी।
नारी का दूसरा अवतार एलेक्सा है।